छत्तीसगढइन अनाथों की सुध लेने वाला कोई नहीं, महिला एवं बाल विकास...

इन अनाथों की सुध लेने वाला कोई नहीं, महिला एवं बाल विकास विभाग के अस्तित्व पर उठे सवाल

विवेक शर्मा चांपा। नगर एवं आसपास के क्षेत्रों में दर्जनों अनाथ बच्चे हैं जो कचरा,कबाड़ बीनकर अपना जीवन यापन कर रहे हैं ।इन नाबालिक अनाथो की सुध लेने वाला कोई नहीं है ।कचरा बीन कर अपना पेट पालने वाले ये मजलूम पढ़ाई से वंचित तो होते ही हैं और गलत संगति के चलते नशे के आदि भी हो जाते हैं। यह चाह कर भी शिक्षा अर्जित नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए भविष्य में इनके अपराध जगत में प्रवेश कर जानें की संभावना बहुत अधिक होती हैं। अभी कुछ दिन पहले लाइंस चौक में एक नाबालिग बालिका कबाड़ बिन रही थी। कबाड़ बिनते बिनते उसे अचानक मिर्गी का दौरा पड़ा और वह बेसुध होकर गिर गई ।जहां वहा गिरी वहा एक मोबाइल कवर बेचने वाले की दुकान है। सुबह के वक्त वह दुकान लगाने उस जगह आया ही था और नाबालिक लड़की को बेसुध देखकर उसके भी हाथ पांव फूल गए। उसने हिम्मत करके लड़की के माथे पर पानी छिड़क कर उसे होश में लाया और कुछ देर बाद फिर होश में आने पर उस लड़की ने बताया कि उसके माता-पिता नहीं है वह चांपा रेल वे स्टेशन के पास रहती है। कचरे से कबाड़ बीन उसे बेचकर इसी तरह अपना गुजारा करती है।

क्या ऐसे ही अनाथ- लाचार लोगों के लिए ही महिला एवं बाल विकास का संचालन नहीं किया जाता ? क्या केवल फाइलों में और आंगनबाड़ी केंद्रों के संचालन तक ही महिला और बाल विकास का अस्तित्व है? नगर में ऐसे दर्जनों विक्षिप्त महिला पुरुष है जिन्हें समाज कल्याण विभाग के सहयोग की आवश्यकता है जिन्हें उचित उपचार और देखरेख की आवश्यकता है। सेंदीरी में चलाए जा रहे हैं मानसिक अस्पताल मे क्या ऐसे लोगों को भर्ती कर उन्हें उचित इलाज मुलायम मुहैया कराना शासन प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं है।जब तक समाज में ऐसे लावारिस बच्चे बड़े बेघर विक्षिप्त मजबूर नजर आते रहेंगे तब तक समाज कल्याण की बात बेमानी है। एयर कंडीशन चार पहियों में घूमने वाले महिला बाल विकास विभाग के अधिकारी केवल अपने कार्यालय और फाइलों तक सीमित हैं। इन्हें कभी जमीनी हकीकत जानने के लिए रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, कचरे के ढेर के पास का भी दौरा करना चाहिए ताकि जिन अनाथो विक्षिप्त,लाचार बेघर लोगों को महिला बाल विकास की योजनाओं अंतर्गत सहयोग की जरूरत है। अनाथ, बेसहारा , बेघर के पुनर्वास हेतु शासन प्रशासन को गंभीर होकर काम करने की जरूरत है । इस कड़कड़ाती ठंडी मे युवा कवि मुकेश सिंघानिया की ये पंक्तियां प्रासंगिक है “बदन और जेब पर कुछ बोझ ही बढ़ता है बेमतलब बिचारे मुफलिसों को सर्दियाँ अच्छी नही लगती”।

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विवेक शर्मा चांपा। नगर एवं आसपास के क्षेत्रों में दर्जनों अनाथ बच्चे हैं जो कचरा,कबाड़ बीनकर अपना जीवन यापन कर रहे हैं ।इन नाबालिक अनाथो की सुध लेने वाला कोई नहीं है ।कचरा बीन कर अपना पेट पालने वाले ये मजलूम पढ़ाई से वंचित तो होते ही हैं और गलत संगति के चलते नशे के आदि भी हो जाते हैं। यह चाह कर भी शिक्षा अर्जित नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए भविष्य में इनके अपराध जगत में प्रवेश कर जानें की संभावना बहुत अधिक होती हैं। अभी कुछ दिन पहले लाइंस चौक में एक नाबालिग बालिका कबाड़ बिन रही थी। कबाड़ बिनते बिनते उसे अचानक मिर्गी का दौरा पड़ा और वह बेसुध होकर गिर गई ।जहां वहा गिरी वहा एक मोबाइल कवर बेचने वाले की दुकान है। सुबह के वक्त वह दुकान लगाने उस जगह आया ही था और नाबालिक लड़की को बेसुध देखकर उसके भी हाथ पांव फूल गए। उसने हिम्मत करके लड़की के माथे पर पानी छिड़क कर उसे होश में लाया और कुछ देर बाद फिर होश में आने पर उस लड़की ने बताया कि उसके माता-पिता नहीं है वह चांपा रेल वे स्टेशन के पास रहती है। कचरे से कबाड़ बीन उसे बेचकर इसी तरह अपना गुजारा करती है। क्या ऐसे ही अनाथ- लाचार लोगों के लिए ही महिला एवं बाल विकास का संचालन नहीं किया जाता ? क्या केवल फाइलों में और आंगनबाड़ी केंद्रों के संचालन तक ही महिला और बाल विकास का अस्तित्व है? नगर में ऐसे दर्जनों विक्षिप्त महिला पुरुष है जिन्हें समाज कल्याण विभाग के सहयोग की आवश्यकता है जिन्हें उचित उपचार और देखरेख की आवश्यकता है। सेंदीरी में चलाए जा रहे हैं मानसिक अस्पताल मे क्या ऐसे लोगों को भर्ती कर उन्हें उचित इलाज मुलायम मुहैया कराना शासन प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं है।जब तक समाज में ऐसे लावारिस बच्चे बड़े बेघर विक्षिप्त मजबूर नजर आते रहेंगे तब तक समाज कल्याण की बात बेमानी है। एयर कंडीशन चार पहियों में घूमने वाले महिला बाल विकास विभाग के अधिकारी केवल अपने कार्यालय और फाइलों तक सीमित हैं। इन्हें कभी जमीनी हकीकत जानने के लिए रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, कचरे के ढेर के पास का भी दौरा करना चाहिए ताकि जिन अनाथो विक्षिप्त,लाचार बेघर लोगों को महिला बाल विकास की योजनाओं अंतर्गत सहयोग की जरूरत है। अनाथ, बेसहारा , बेघर के पुनर्वास हेतु शासन प्रशासन को गंभीर होकर काम करने की जरूरत है । इस कड़कड़ाती ठंडी मे युवा कवि मुकेश सिंघानिया की ये पंक्तियां प्रासंगिक है "बदन और जेब पर कुछ बोझ ही बढ़ता है बेमतलब बिचारे मुफलिसों को सर्दियाँ अच्छी नही लगती"।
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